Friday, March 27, 2020



सरहुल का मुख्य सन्देश है 
मानव जाति को प्रकृति के संग जीवन जीना 
प्रकृति पर्व सरहुल वसंत ऋतु  के दौरान मनाया जाता है जो चैत्र से प्रारम्भ होकर बैसाख यानि दो माह तक चलने वाला यह एक अद्भुत त्यौहार है। इस त्यौहार में सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक तीनो का सामंजस्य एक साथ देखने को मिलता है ,जो आदिवासी सहित समस्त मानव समुदाय को प्रकृति की ओर  निकट लाने का सुंदरतम प्रयास है। मूलतः सरहुल पर्यावरण संरक्षण, समानता, एकता, आपसी भाईचारा व सौहार्द का पैगाम देता है। 
जब सखुआ के पेड़ की शाखाओं में नए फूल खिलते है तो सरहुल का आगमन होता है। ग्राम देवता की पूजा इन्हीं फूलों से की जाती है। इन फूलों से पाहन और ग्रामीण के बीच भाईचारगी और दोस्ती का संचार तो होता ही है। आदिवासी इलाका फूलों के पर्व सरहुल को मनाने के लिए बौरा जाता है। बौराए क्यों नहीं,यह गदराया मौसम जो होता है। हर वृक्ष, हरेक डाली पर फूल और नन्हीं कोंपलें उग आती है। ठूंठ में भी नाजुक कलियाँ फूट पड़ती है। सारा जंगल लहलहा उठता है। पलाश के फूलों से  महुआ की लहलह भरी भीनी-भीनी सुगंध मन को सुकून प्रदान करती है। लोग खूब नाचते गाते  है।  सरहुल का गीत कंठों से फूट पड़ता है, मांदर की थाप ,बांसूरी की सुरीली धुन और नगाड़ों की थिरकन को ताल देकर लोग झूमते हुए प्रकृति से अपने जुड़ाव और आत्मीयता का परिचय देते है। इस मदहोश भरी मनमोहक वातावरण में आदिवासियों का वसंतोत्सव देखने लायक होता है। सचमुच वन तथा वृक्ष की पूजा से संबंधित महत्वपूर्ण त्यौहार सरहुल जनजातीय समाज की गौरवशाली प्राकृतिक धरोहर का नाम है।  यही धरोहर मानव की सभ्यता संस्कृति एवं पर्यावरण की रीढ़ है। इसी वजह से तो रचनाकारों ने यहां के लोक रचनाओं में नदी, नाले-झरने, पर्वत-घाटियों की श्रृंखला तथा शस्य- श्यामली धरती की बेजोड़ कल्पना की है। इस अवसर पर पाहन आने वाले मौसम की भविष्वाणी के साथ सभी जीवों के प्रति सुख-समृधि की कामना करता है। सरहुल पर्व का मुख्य सन्देश है कि मानव जाति  को प्रकृति के साथ एकरूप होकर जीना  सीखना चाहिए। क्योंकि प्रकृति की रक्षा के बगैर  मानव जीवन संभव नहीं है।   
गौरवतलब है कि आदिवासियों की सभ्यता व संस्कृति प्रकृति की रक्षा से जुडी हुई है। झारखण्ड में जल, जंगल, जमीन को आबाद करने के लिए आदिवासियों का अपना स्वर्णिम इतिहास रहा है। जिस प्राकृतिक धरोहर को आदिवासियों ने आबाद किया है वह  इस समुदाय की खूंटकटी सामुदायिक विरासत मानी गई है।  1700  से 1900  के दरमियान अंग्रेज शोषक शासकों जमींदारों द्वारा आदिवासियों के  जल, जंगल, जमीन की लूट से झारखण्ड क्षेत्र जलता रहा है। मगर इस लूट के खिलाफ आदिवासियों ने जबरदस्त मुखालफत भी किया है। इनके इतिहास से भलीभांति अवगत है  कि जब दामिन- ई- कोह के घने जंगल को काटकर अंग्रेज भागलपुर तक रेलवे लाइन बिछा रहे थे उस वक्त संथाली आदिवासियों ने जंगल पर्यावरण की रक्षा में हुल आंदोलन चलाया था।  इस गौरवशाली संघर्ष को आज भी आदिवासी समाज वसंत ऋतु तथा सरहुल पर्व के गीतों में बेहद शिद्द्त से याद करता है। 

मगर मौजूदा हालत का अवलोकन करने से मन अत्यंत व्यथित हो जाता है।जाहिर है आदिवासी समाज प्राकृतिक छठा खेत खलियानों जंगलों के बीच निकाय बुनाई दातुन-पतई कर प्रकृति के गोद में लम्बे अरसे से क्रीड़ा करते रहे है।लेकिन आज झारखण्ड के गाँवो की स्वच्छंदता उसकी लोक संस्कृति और रहन सहन में भारी बदलाव आया है जो झारखण्ड की अस्तित्व पर प्रश्नचिंह बनकर खड़ा है।आज शहरों में लोक उत्सव मनाकर इनकी संस्कृतियों को जिन्दा रखने का कमोबेश प्रयास तो होती है।मगर इसके आयोजन में शहरीकरण की छाप भी दिखाई देती है।आज सरहुल के नृत्य केवल उत्सव और नेताओं के स्वागत में किया जाने वाला राग दरबारी नृत्य हो गया है।पहले यह प्रकृति से जोड़ने वाला नृत्य हुआ करता था।समस्या और भी गंभीर हो जाती है जब आदिवासी समाज और सम्पूर्ण झारखण्ड बड़ी तेजी से औद्योगिकरण और शहरीकरण के प्रदूषण से प्रभावित है।आज झारखण्ड से सैंकड़ों पहाड़ गायब हो चुके है जो भी पहाड़ बचे हुए है उनका सीना चीरकर नंगा किया जा रहा है। शहरीकरण ने पहाड़ के पत्थरों को दिन रात तोड़कर लहूलुहान कर दिया है।हजारों पेड़ पौधों की कटाई व राज्य में अवैध ईंट भट्ठों से निकलने वाली धुएं और आयरन स्पंज फैक्ट्रियों से उड़ते काले धूलकणों ने पर्यावरण को प्रदूषित कर लोगों को जीना मुहाल कर दिया है। एक ओर जहां विश्व में नदियों को मानवीय संबैधानिक अधिकार दी जा रही है वहीं झारखण्ड की लाइफ लाइन कही जाने वाली दामोदर नदी को बालू विहीन कर जल को प्रदूषित करने में कोई कसर नहीं बाकी है।तापमान में बढ़ोतरी विश्व के लिए बेहद चिंता का विषय है।भीषण प्राकृतिक आपदा सर पर मंडरा रहा है।अगर सबक नहीं लिया गया तो प्राकृतिक संसाधनों के साथ यह अनैतिक बर्ताव मानव को जान देकर चुकानी पड़ेगी।इतना ही नहीं कानूनी हथकंडों ने आदिवासी समाज एवं प्रकृति के बीच संबंधों को तार तार कर दिया है।दूसरी ओर सरकारी तंत्र वन संरक्षण के नाम पर यूकिलिप्टस के पेड़ धड़ल्ले से लगाये जा रहे है।इससे न केवल ग्रामीण सामाजिक आथिक सांस्कृतिक आधार नष्ट हो रहा है वरन पर्यावरण संतुलन भी बड़ी तेजी से बिगड़ रहा है।ऐसे हालात में सरहुल के अहमियत को नये सिरे से हमलोगों को विश्लेषित करने की आवश्यकता है ताकि उजड़े जंगल के ठूंठों में हरियाली भर सके।  



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