Monday, January 6, 2020

विकास का बाट जोहता स्वतंत्रता सेनानी शहीद जीतराम बेदिया का गांव

इतिहास                     
       
सुरेन्द्र कुमार बेदिया 
जिस प्रकार झारखण्ड राज्य प्राकृतिक रत्नगर्भा के लिए बेहद प्रसिद्ध है। उसी प्रकार झारखण्ड की धरती अनेकों वीर शहीदों के त्याग और बलिदान से भरा पड़ा है। उन्हीं में से एक नाम स्वतंत्रता सेनानी शहीद जीतराम बेदिया का है, जिन्हे सरकार ने वर्ष 2016 में विधानसभा स्थापना के दिन झारखण्ड के शहीदों के सूची में जोड़ने का काम किया। शहीद जीतराम बेदिया ऐसे योद्धा रहे है जिन्होंने अपने नेतृत्व में अत्याचारी अंग्रेजों उनके दलालों, जमींदारों, साहूकारों और सूदखोर-महाजनों के अंतहीन शोषण के विरूद्ध आवाज़ उठायी थी।
  
शहीद जीतराम बेदिया का जन्म 30 दिसम्बर, 1802 को रांची के ओरमांझी प्रखंड अंतर्गत पहाड़ के तलहटी में अवस्थित गगारी गाँव के आदिवासी समुदाय में हुआ था। वह अत्यंत गरीब परिवार से थे। माता महेश्वरी देवी थी।  पिता जगतनाथ बेदिया अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभायी थी।  यही वजह था की बचपन से ही जीतराम बेदिया के जेहन में देशभक्ति का जज्बा कूट-कूट कर भरा हुआ था। जब टिकैत उमरांव सिंह, शेख भिखारी को 8 जनवरी,1858 को चुटूपालू घाटी में बरगद के पेड़ पर फांसी दी गई तो उस क्षेत्र के लोगों में काफी आक्रोश फुट पड़ा था। अपने वीर योद्धाओं को देखने के लिए हजारों की संख्या में हिन्दू मुस्लिम सभी समुदाय के लोग जन सैलाब बनकर चुटूपालू घाटी में उमड़ पड़े थे।  उस समय तक जीतराम बेदिया अंग्रेजों के चंगुल से बाहर थे।  नेतृत्व की सारी जिम्मेवारी अब उनके कन्धों पर आ गया था।  उसने वहीं पर हाँथ में तलवार उठाकर लोगों को जोशपूर्ण सम्बोधन करते हुए मेजर मेक्डोनाल्ड और उनके सेना को झारखण्ड की धरती से मार  भगाने का आह्वान किया।  छापामार  युद्ध में काफी निपुण होने के कारण कई दिनों तक अंग्रेज सैनिकों के साथ  लुका-छिपी का युद्ध चलता रहा।  इस विद्रोह को दबाने के लिए एक तरफ ब्रिटिश कम्पनी की सुसज्ज्ति सेना थी, जिसके पास आधुनिक हथियार, रायफल, बन्दुक, गोला बारूद थे, वहीं  जीतराम बेदिया और उनके लड़ाकू साथियों के पास परम्परागत हथियार तीर- धनुष, गुलेल, तलवार, बरछा और गंडासा थे। इसके बावजूद जीतराम बेदिया और उनके लड़ाकू साथी अदम्य साहस, एकजुटता एवं कुशल नेतृत्व के साथ बड़ी मुस्तैदी से लड़ते रहे। अंततः 23  अप्रैल, 1858 को गगरी और खटंगा गॉंव के समीप मेजर मेक्डोनाल्ड के मद्रासी फ़ौज और जीतराम बेदिया के लड़ाकू योद्धाओं के साथ एकाएक मुठभेड़ में दोनों ओर से भयंकर लड़ाई हुई। कई मद्रासी फौजी मारे गए। जीतराम बेदिया को घोडा सहित गोली मारी गयी। गगरी और खटंगा गॉंव के बीचोबीच एक गहरी खाई में उनके शव और मृत घोडे  को गिराकर  मिटटी भर दिया। उस स्थान को घोडा गढ़ा कहा  जाता है।

30.12.1802 -  23.4.1858
शहीद जीतराम बेदिया के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि तब होगी, जब उनके विचारों पर दृढ़ता से अमल किया जायेगा। उनकी संघर्षों की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। जीतराम बेदिया जिस समुदाय से आते है वह समाज आज भी विकास के दौड़ में हाशिये पर है। जो स्थिति आजादी के पूर्व में थी कमोबेश वही स्थिति आज भी है। समाज में आदिवासी समुदाय उपेक्षित है। जल, जंगल, जमीन की अवैध लूट, दहेज प्रथा, आरक्षण में मनमानी नशाखोरी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, बेईमानी, पलायन-विस्थापन ने झारखण्ड को बंधक बना लिया है। प्राकृतिक संसाधनों पर अवैध कब्जा के जरिये प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़कर यहां के लोगों को बेदखल किया जा रहा है  माना  कि आर्थिक विकास करना समय की जरूरत है कुछ हद तक विकास हो भी रहा है। इसमें आदिवासी कहां बाधक है| लेकिन आदिवासियों को उजाड़ कर विकास की बात करना धरती पुत्रों के साथ घोर अन्याय है। चंद लोगों के हितों को ध्यान में रखकर विकास नीति नहीं, बल्कि व्यापक आदिवासियों - मूलवासियों को ध्यान में रखकर विकास को बढ़ावा देने का प्रयास होना चाहिए, जिससे आदिवासियों को अपने ही देश में परायेपन का बोध महसूस न हो और उनका अस्तित्व बचा रहे।
         
         वर्तमान में ओरमांझी प्रखंड को गगरी पहाड़ जीतराम बेदिया के आंदोलन की कहानी बयां  कर रहा है। इस पहाड़ के आसपास कई आदिवासी-मूलवासी गांव-चुटूपालू, तापे, खीराबेड़ा,  बाह्मणकाटापेसराटांड़, सागाटोलाहलबादी, गणेशपुर, तिरलाजावाबेड़ाकरमाजारा,    डुमरडीहापिस्का, उरबा, हरचंडा और गगारी गांव आदि बसे हुए है।उनके वंशजों में धनराज बेदिया, धर्मनाथ बेदिया, मोतीलाल बेदिया, सघन बेदिया, अकलू बेदिया, पारसनाथ बेदिया गगारी गांव में अपने  बाल-बच्चों के साथ रहते है। वे कहते है कि शहीद जीतराम बेदिया को ऐतिहासिक सम्मान तो मिल गया, लेकिन आज वीर सपूत का गांव विकास की बाट जोह रहा है।जीतराम बेदिया से सम्बंधित ऐतिहासिक स्थलों को संरक्षित करने की आवश्यकता है। उनकी जीवनी को स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रमों में शामिल करने हेतु सरकार को ध्यान देना चाहिए, ताकि भावी युवा पीढ़ी जीतराम बेदिया को स्मरण कर प्रेरणा ग्रहण करे। 
   
           यह लेख प्रभात खबर मे 18 अक्टूबर, 2019 को प्रकाशित हो चुका है।                                  




No comments:

Post a Comment