Friday, March 27, 2020



सरहुल का मुख्य सन्देश है 
मानव जाति को प्रकृति के संग जीवन जीना 
प्रकृति पर्व सरहुल वसंत ऋतु  के दौरान मनाया जाता है जो चैत्र से प्रारम्भ होकर बैसाख यानि दो माह तक चलने वाला यह एक अद्भुत त्यौहार है। इस त्यौहार में सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक तीनो का सामंजस्य एक साथ देखने को मिलता है ,जो आदिवासी सहित समस्त मानव समुदाय को प्रकृति की ओर  निकट लाने का सुंदरतम प्रयास है। मूलतः सरहुल पर्यावरण संरक्षण, समानता, एकता, आपसी भाईचारा व सौहार्द का पैगाम देता है। 
जब सखुआ के पेड़ की शाखाओं में नए फूल खिलते है तो सरहुल का आगमन होता है। ग्राम देवता की पूजा इन्हीं फूलों से की जाती है। इन फूलों से पाहन और ग्रामीण के बीच भाईचारगी और दोस्ती का संचार तो होता ही है। आदिवासी इलाका फूलों के पर्व सरहुल को मनाने के लिए बौरा जाता है। बौराए क्यों नहीं,यह गदराया मौसम जो होता है। हर वृक्ष, हरेक डाली पर फूल और नन्हीं कोंपलें उग आती है। ठूंठ में भी नाजुक कलियाँ फूट पड़ती है। सारा जंगल लहलहा उठता है। पलाश के फूलों से  महुआ की लहलह भरी भीनी-भीनी सुगंध मन को सुकून प्रदान करती है। लोग खूब नाचते गाते  है।  सरहुल का गीत कंठों से फूट पड़ता है, मांदर की थाप ,बांसूरी की सुरीली धुन और नगाड़ों की थिरकन को ताल देकर लोग झूमते हुए प्रकृति से अपने जुड़ाव और आत्मीयता का परिचय देते है। इस मदहोश भरी मनमोहक वातावरण में आदिवासियों का वसंतोत्सव देखने लायक होता है। सचमुच वन तथा वृक्ष की पूजा से संबंधित महत्वपूर्ण त्यौहार सरहुल जनजातीय समाज की गौरवशाली प्राकृतिक धरोहर का नाम है।  यही धरोहर मानव की सभ्यता संस्कृति एवं पर्यावरण की रीढ़ है। इसी वजह से तो रचनाकारों ने यहां के लोक रचनाओं में नदी, नाले-झरने, पर्वत-घाटियों की श्रृंखला तथा शस्य- श्यामली धरती की बेजोड़ कल्पना की है। इस अवसर पर पाहन आने वाले मौसम की भविष्वाणी के साथ सभी जीवों के प्रति सुख-समृधि की कामना करता है। सरहुल पर्व का मुख्य सन्देश है कि मानव जाति  को प्रकृति के साथ एकरूप होकर जीना  सीखना चाहिए। क्योंकि प्रकृति की रक्षा के बगैर  मानव जीवन संभव नहीं है।   
गौरवतलब है कि आदिवासियों की सभ्यता व संस्कृति प्रकृति की रक्षा से जुडी हुई है। झारखण्ड में जल, जंगल, जमीन को आबाद करने के लिए आदिवासियों का अपना स्वर्णिम इतिहास रहा है। जिस प्राकृतिक धरोहर को आदिवासियों ने आबाद किया है वह  इस समुदाय की खूंटकटी सामुदायिक विरासत मानी गई है।  1700  से 1900  के दरमियान अंग्रेज शोषक शासकों जमींदारों द्वारा आदिवासियों के  जल, जंगल, जमीन की लूट से झारखण्ड क्षेत्र जलता रहा है। मगर इस लूट के खिलाफ आदिवासियों ने जबरदस्त मुखालफत भी किया है। इनके इतिहास से भलीभांति अवगत है  कि जब दामिन- ई- कोह के घने जंगल को काटकर अंग्रेज भागलपुर तक रेलवे लाइन बिछा रहे थे उस वक्त संथाली आदिवासियों ने जंगल पर्यावरण की रक्षा में हुल आंदोलन चलाया था।  इस गौरवशाली संघर्ष को आज भी आदिवासी समाज वसंत ऋतु तथा सरहुल पर्व के गीतों में बेहद शिद्द्त से याद करता है। 

मगर मौजूदा हालत का अवलोकन करने से मन अत्यंत व्यथित हो जाता है।जाहिर है आदिवासी समाज प्राकृतिक छठा खेत खलियानों जंगलों के बीच निकाय बुनाई दातुन-पतई कर प्रकृति के गोद में लम्बे अरसे से क्रीड़ा करते रहे है।लेकिन आज झारखण्ड के गाँवो की स्वच्छंदता उसकी लोक संस्कृति और रहन सहन में भारी बदलाव आया है जो झारखण्ड की अस्तित्व पर प्रश्नचिंह बनकर खड़ा है।आज शहरों में लोक उत्सव मनाकर इनकी संस्कृतियों को जिन्दा रखने का कमोबेश प्रयास तो होती है।मगर इसके आयोजन में शहरीकरण की छाप भी दिखाई देती है।आज सरहुल के नृत्य केवल उत्सव और नेताओं के स्वागत में किया जाने वाला राग दरबारी नृत्य हो गया है।पहले यह प्रकृति से जोड़ने वाला नृत्य हुआ करता था।समस्या और भी गंभीर हो जाती है जब आदिवासी समाज और सम्पूर्ण झारखण्ड बड़ी तेजी से औद्योगिकरण और शहरीकरण के प्रदूषण से प्रभावित है।आज झारखण्ड से सैंकड़ों पहाड़ गायब हो चुके है जो भी पहाड़ बचे हुए है उनका सीना चीरकर नंगा किया जा रहा है। शहरीकरण ने पहाड़ के पत्थरों को दिन रात तोड़कर लहूलुहान कर दिया है।हजारों पेड़ पौधों की कटाई व राज्य में अवैध ईंट भट्ठों से निकलने वाली धुएं और आयरन स्पंज फैक्ट्रियों से उड़ते काले धूलकणों ने पर्यावरण को प्रदूषित कर लोगों को जीना मुहाल कर दिया है। एक ओर जहां विश्व में नदियों को मानवीय संबैधानिक अधिकार दी जा रही है वहीं झारखण्ड की लाइफ लाइन कही जाने वाली दामोदर नदी को बालू विहीन कर जल को प्रदूषित करने में कोई कसर नहीं बाकी है।तापमान में बढ़ोतरी विश्व के लिए बेहद चिंता का विषय है।भीषण प्राकृतिक आपदा सर पर मंडरा रहा है।अगर सबक नहीं लिया गया तो प्राकृतिक संसाधनों के साथ यह अनैतिक बर्ताव मानव को जान देकर चुकानी पड़ेगी।इतना ही नहीं कानूनी हथकंडों ने आदिवासी समाज एवं प्रकृति के बीच संबंधों को तार तार कर दिया है।दूसरी ओर सरकारी तंत्र वन संरक्षण के नाम पर यूकिलिप्टस के पेड़ धड़ल्ले से लगाये जा रहे है।इससे न केवल ग्रामीण सामाजिक आथिक सांस्कृतिक आधार नष्ट हो रहा है वरन पर्यावरण संतुलन भी बड़ी तेजी से बिगड़ रहा है।ऐसे हालात में सरहुल के अहमियत को नये सिरे से हमलोगों को विश्लेषित करने की आवश्यकता है ताकि उजड़े जंगल के ठूंठों में हरियाली भर सके।  



Wednesday, January 8, 2020

सन्दर्भ : गुमनाम स्वतंत्रता सेनानी शहीद जीतराम बेदिया का जयंती समारोह


                एकता और संघर्ष की मशाल को थामे रखें 
सुरेन्द्र कुमार बेदिया 

30 दिसंबर, 2012  पूरे बेदिया समाज के लिए अपने नायक को स्थापित करने का एक गौरवशाली ऐतिहासिक दिन था। झारखण्ड राज्य ओरमांझी प्रखंड  के पिस्का एनएच 33 चौक में इतिहास के पन्नों से बेदखल कर दिये गये स्वतंत्रता आंदोलन के महासंग्रामी योद्धा शहीद जीतराम बेदिया का पहली बार 210 वीं जयंती व समारोह मनाया जा रहा था। 

यह समारोह ऐसे समय में मनाया जा रहा था] जब भारत की राजधानी दिल्ली के एक बस में हमारी बहादूर बहन निर्भया के साथ गैंग रेप कर दरिदों ने मौत के मुंह में धकेल दिया था। इसका प्रखर प्रतिवाद हो रहा था। हजारों हजार नौजवान दिल्ली के सड़कों में उतरकर अपना आक्रोश प्रकट कर रहे थे। दूसरी तरफ झारखण्ड में अवसरवादी गठबंधन में बनी सरकार की सत्ता डगमगा रही थी और झारखण्ड सरकार द`वारा बेदिया अनुसूचित जनजाति पर सुनियोजित ढंग से हमले तेज हो रहे थे। 

         ऐसी परिस्थिति में बेदिया अनुसूचित जनजाति विकास परिषद ने पूरी ऊर्जा के साथ अपनी जनशक्ति को बटोरकर इस समारोह में शिरकत की थी जिससे बेदिया समुदाय की अपार भीड़ उमड़ पड़ी थी। लम्बे आरसे के पश्चात पहली बार करीब 20&25 हजार की भारी भीड़ ने सामूहिक चेतना और एकता की प्रबल भावना का प्रतीक बन गया था। इनकी मनोदशा कह रही थी की यदि हम जागरूक रहें ]सजग रहे] एकजूट रहें और वैचारिक रूप से एकमत हों] तो हमें कोई भी शक्ति अपनी राह से विचलित नहीं कर सकता है और न ही हमें परास्त कर सकती है। 

        निश्चित तौर पर यह भीड़ अपने जाति समुदाय के दिलो&दिमाग में सदा के लिए यादगार बना रहेगा और बेदिया समुदाय के नई पीढ़ी को सजग संगठित रहने और संघर्ष करने हेतु हमेशा प्राण वायु देता रहेगा] उसे प्रेरित करता रहेगा।  यह आंदोलन अन्य समुदाय में राज्य और राजनीति के बीच अपना गहरा प्रभाव छोड़ा है। व्यापक स्तर पर एक नई चेतना को जन्म दिया है। भीड़ के जेहन में यह बातें भी स्पष्ट रूप से उभर रही थी की एकताबद्ध संघर्षों के जरिये भविष्य में आनेवाले संकटों और समस्याओं से हमें मुक्ति मिल सकती है। 

         जैसा कि हमारा मानव समाज या जातीय समाज निरंतर परिवर्तनशील और गतिशीलता के दौर से गुजरता रहा है।  इसलिए गतिशील भौतिक दर्शन को आत्मसात कर ही आज हमें सामाजिक विकास के लिए मार्ग बनाने की जरूरत है। अपने समुदाय की व्यापक जनगोलबंदी] भागीदारी] एकताबद्ध आंदोलन एवं उपलब्धियों से बेदिया समाज के अंदर एक नया जोश और जज्बा पैदा हुआ है। यह बेदिया अनुसूचित जनजाति विकास परिषद नामक संगठन का निर्माण व नेतृत्व क्षमता का ही परिणाम है। लेकिन कभी *&कभी अपने ही लोगों द्वारा अपने जाति समुदाय के लोगों को गुमराह कर प्रगति की बजाय अवनति की ऒर धकेलने का काम किया जाता है। इससे सबों को हमेशा सचेत रहने की आवश्यकता है। इस कार्यशैली के बदौलत ही सामाजिक संगठन को ठोस सुदृढ़ व जीवंत बनाया जा सकता है और सकारात्मक विचारों को अपनाकर ही अपने समुदाय को प्रगति परिवर्तन के पथ पर अग्रसर किया जा सकता है। उनकी पीड़ा वेदना एवं समस्याओं का हल निकला जा सकता है। और समाज को सही दिशा में उतरोतर विकास कर सकते है। भविष्य में विकास करने के लिए सामाजिक जीवन के कई पड़ाव को संघर्ष के रास्ते से गुजरते रहना पड़ेगा।  
       aaआज बेदिया जनजाति समाज को अपने भीतर से ही रोशनी ग्रहण करनी है। यह रोशनी शहीद जीतराम बेदिया के संघर्षशील परम्परा से लेना है । उसे अमल में लाना है। तभी यह अंधकार छंटेगा। आत्मसम्मान जगेगा और पहचान निर्मित होगी। 

      हमें बेहद ख़ुशी हो रही है कि पत्रिका का तृतीय संस्करण एक नई ऊर्जा के साथ आपके साकारात्मक दृष्टिकोण और वैचारिक&आर्थिक सहयोग से आपके हाथों में पहुंच रही है। पिछले अंकों में आप आलोचनात्मक सुझाव भी दिए थे और पत्रिका की प्रशंसा करते हुए ढेर सारी बधाईयां प्राप्त हुई थी। इस बार से एक नई कॉलम पाठकों की राय में आपके विचारों को जगह दी जा रही है। आगे भी पत्रिका को गंभीर वैचारिक &-चिंतनशील पत्रिका बनाने के लिए आप सबों को तहेदिल से धन्यवाद प्रेषित कर रहे है।  इस पत्रिका के माध्यम से यदि अपने समुदाय के अंदर अपनी समस्याओं के बारे में सोंचने] समझने] लिखने और संगठित होने की क्षमता पैदा कर सकें] तो हमारा प्रयास सार्थक होगा। 

बेदिया पत्रिका 30 दिसम्बर , 2014  अंक -3  में प्रकाशित 

Tuesday, January 7, 2020

नये वन कानून 2019 और एन आर सी आदिवासी समाज के लिए घातक

नये वन कानून 2019  और एन आर सी  आदिवासी समाज के लिए घातक 

         
सुरेंद्र कुमार बेदिया 

              बेदिया समाज को सरकार के आदिवासी विरोधी कानूनों और नीतियों को शिनाख्त करने, पठन-पाठन कर समझने और जानने की जरूरत है। अपनी चेतना को उन्नत कर व्यापक दृष्टिकोण बनाना है। अक्सर हम पढ़ने में कोताही करते है। सरकार द्वारा समय-समय पर पारित होने वाली कानूनों की तहकीकात नहीं करते, क्योंकि ये कानून हमारे अस्तित्व को मिटाने की कोशिश कर सकते है। कानून की बारीकियों को समझना बेदिया समाज और आदिवासी समुदाय के लिए नितांत आवश्यक है, ताकि मालूम चल सके कि सरकार  हमारी हितैषी बनकर काम कर रही है की नहीं❓अगर हम इसे जानने का जहमत नहीं उठाएंगे तो किसी  भी पार्टी की सरकार को विश्लेषण करने और व्यापक दृश्टिकोण बनाने में सक्षम नहीं हो सकते और सरकारें और पार्टियां आदिवासियों को कठपुतली की तरह नचाते रहेंगी और हमारे ऊपर कानून की कुल्हाड़ी चलेगी और हम सिर्फ मूकदर्शक बने रहेंगे। आज पूरे  देश भर में आदिवासियों को लक्ष्य किया जा रहा है। सदियों से जंगल उनका पुश्तैनी घर रहा है। आज उनके घरौंदों को उजाड़कर कॉरपोरेट घरानो और बड़े पूंजीपतियों को विकास के नाम पर विनाश करने के लिए बेहिचक सौंपा जा रहा है। 

                आप भलीभांति अवगत है कि देश में  नये वन अधिकार कानून 2019 को लागू करने के लिए सरकार बैचेन दिख रही है। इस कानून में आदिवासियों को क्या होनेवाला है ?  इस पर आदिवासी समाज को क्या नुकसान होने वाला है ? इस पर गहराई से जाँच पड़ताल नहीं करेंगे तो निश्चित रूप से हमारी अस्मिता को मटियामेट करने के लिए सरकार उतारू है। आदिवासियों के लम्बे संघर्षों के बदौलत हासिल किये गए वन अधिकार कानून -2005 को निरस्त करने की साजिश कर रही है और संसद में बगैर चर्चा के देश में  लागू करने की कोशिश चला रही है। सवाल है इस कानून के आने से आदिवासी समाज पर बहुत ही कुप्रभाव पड़ने वाला है। नये कानून के लागू होने पर वन उत्पादों से आदिवासी समुदाय को हमेशा-हमेशा के लिए वंचित कर दिया जायेगा। सुखी लकड़ी, साल -सखुआ  और केन्दु पता भी उन्हें नसीब नहीं होगी।  यहां तक की उनके पशुओं  के  चारे पर  भी रोक लग जाएगी। इतना ही नहीं इस नये कानून के अस्तित्व में आने से वन विभाग के अधिकारियों को बेलगाम अधिकार मिल जायेंगे और नतीजतन उनका दमन-अत्याचार बढ़ जायेगा और इसका उल्लंघन करने पर दस हजार से लेकर एक लाख रुपया तक जुर्माना भरना पड़ेगा।  साथ ही उनके लिए अलग से हाजत और रेंजर कोर्ट बनाने की योजना सरकार सोंच रखी है।

             दरअसल, सरकार आदिवासियों को जल, जंगल, जमींन, जलस्रोत व् खनिज संपदा से पूरी तरह वंचित कर देने की साजिश रच रही है।  साथ ही पर्यावरण का जो नुकसान होगा वह अलग ही बात है।  यह काम  इसलिए की जा रही है ताकि कॉरपोरेट घरानो को मुंहमांगी कीमतों पर जंगलों की जमीन, लकड़ी वन्य  उत्पाद, खनिज आदि दिया जा सके।  कितनी अजीब बिडंबना है सरकार हमसे वोट लेगी और लाभ पहुंचाएगी निजी घरानो को. हमको यही तो समझना है अन्यथा हम हमेशा दमन झेलने के लिए अभिशप्त रहेंगे और पर्यावरण सम्बन्धी  नियमों के खुले उल्लंघन की छूट उन्हें मिल जाएगी। 

               पर्यावरण संकट आज एक विश्वव्यापी मुद्दा बन गया है। लेकिन संवेदनहीन सरकारें और निजी घरानों को इससे क्या मतलब है उन्हें तो सिर्फ रुपया कमाना है।  पूंजी संग्रह करना है।  आदिवासी समाज को पूरी दृढ़ता के साथ एकताबद्ध होकर बुलंदी से इस काले कानूनों को थोपने वाली सरकार के खिलाफ आवाज उठाने के लिए कमर कसना होगा।  नहीं तो आनेवाली पीढ़िया हमें कदापि माफ़ नहीं करने वाली है।

              सरकार पूरे देश में नागरिकता संशोधन एक्ट ( सी सी ए ) और नागरिकता रजिस्टर ( एन आर सी  ) सरीके छलभरी योजना को लागू करने पर तुली है। एनआरसी अर्थात नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस आप देश में नागरिकता की सूची में है या नहीं जोड़ने के लिए सरकार के पास अर्जी पूरे  दस्तावेज के साथ सौंपना है।  इसके लिए सरकार को पर्याप्त सबूत आपको दिखानी है आप इस देश में रहने लायक है या नहीं।  उसके बाद जाँच पड़ताल कर आपका नाम सूची में जोड़ने का काम किया जाना है।  पर्याप्त दस्तावेज  के अभाव में आपको डिटेंशन सेल बनाकर कैद कर दिया जायेगा। अगर आप दिखाते भी है तो क्या गारंटी है कि इस सूची में आपका नाम होगा ही असम का उदाहरण आपके सामने है वहां तक़रीबन 3.29  करोड़ लोग आवेदन प्रस्तुत किये थे।  जिसमे से कुल 1. 9  करोड़ लोगों का ही नाम इस सूची में शामिल किया गया बाकि लोगों को कहा गया यह आपका देश नहीं है। आप यहां के नागरिक नहीं है और उसे कैम्प में डाल दिया गया है।  जिसमे लगभग 28 लोगों की मौत हो चुकी है।  आप अपने ही देश में पराया हो जायेंगे।  सवाल उठता है इसके जद में अधिकतर कौन लोग आएंगे ? आपको मालूम है कि इसमें सबसे ज्यादा शिकार गरीब -गुरबों, आदिवासी,दलित, विस्थापित , घुमन्तु जातियां, बंजारा, निरक्षर लोगों को आना है। इनके नाम आसानी से हटाये जा सकते है क्योंकि गरीबों के पास अक्सर पर्याप्त दस्तावेज नहीं रहते है।  इसलिए गरीब, दलित, आदिवासी, दलित, विस्थापित , घुमन्तु जातियां, बंजारा, निरक्षर को  एनआरसी रजिस्टर में आसानी से निशाना बनाया जा सकता है। बेदिया समाज अभी पिछड़ापन का दंश झेल रहा है।  ऐसी स्थिति में हमारा समाज भी इससे प्रभावित होने से नहीं बच पायेगा। इस विभाजन पैदा करने वाली योजना को बारीकी से समझना और उसे नाकाम करने का बीड़ा उठाना है। सरकार असल मुद्दों मुफ्त शिक्षा, रोजगार, स्वस्थ, सिंचाई, पानी, सड़क से भटकाकर विभाजनकारी एनआरसी एजेंडा को लागू करने की कवायद कर रही है इसे ख़ारिज करवाना। और आदिवासी लोग, आम मेहनतकश लोग रोजमर्रे की जिंदगी में जो जरूरी आर्थिक चिंताओं को झेल रहे है उनका समाधान करने के लिए सरकार को विवश करने का काम करना है।     


     


















Monday, January 6, 2020

विकास का बाट जोहता स्वतंत्रता सेनानी शहीद जीतराम बेदिया का गांव

इतिहास                     
       
सुरेन्द्र कुमार बेदिया 
जिस प्रकार झारखण्ड राज्य प्राकृतिक रत्नगर्भा के लिए बेहद प्रसिद्ध है। उसी प्रकार झारखण्ड की धरती अनेकों वीर शहीदों के त्याग और बलिदान से भरा पड़ा है। उन्हीं में से एक नाम स्वतंत्रता सेनानी शहीद जीतराम बेदिया का है, जिन्हे सरकार ने वर्ष 2016 में विधानसभा स्थापना के दिन झारखण्ड के शहीदों के सूची में जोड़ने का काम किया। शहीद जीतराम बेदिया ऐसे योद्धा रहे है जिन्होंने अपने नेतृत्व में अत्याचारी अंग्रेजों उनके दलालों, जमींदारों, साहूकारों और सूदखोर-महाजनों के अंतहीन शोषण के विरूद्ध आवाज़ उठायी थी।
  
शहीद जीतराम बेदिया का जन्म 30 दिसम्बर, 1802 को रांची के ओरमांझी प्रखंड अंतर्गत पहाड़ के तलहटी में अवस्थित गगारी गाँव के आदिवासी समुदाय में हुआ था। वह अत्यंत गरीब परिवार से थे। माता महेश्वरी देवी थी।  पिता जगतनाथ बेदिया अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभायी थी।  यही वजह था की बचपन से ही जीतराम बेदिया के जेहन में देशभक्ति का जज्बा कूट-कूट कर भरा हुआ था। जब टिकैत उमरांव सिंह, शेख भिखारी को 8 जनवरी,1858 को चुटूपालू घाटी में बरगद के पेड़ पर फांसी दी गई तो उस क्षेत्र के लोगों में काफी आक्रोश फुट पड़ा था। अपने वीर योद्धाओं को देखने के लिए हजारों की संख्या में हिन्दू मुस्लिम सभी समुदाय के लोग जन सैलाब बनकर चुटूपालू घाटी में उमड़ पड़े थे।  उस समय तक जीतराम बेदिया अंग्रेजों के चंगुल से बाहर थे।  नेतृत्व की सारी जिम्मेवारी अब उनके कन्धों पर आ गया था।  उसने वहीं पर हाँथ में तलवार उठाकर लोगों को जोशपूर्ण सम्बोधन करते हुए मेजर मेक्डोनाल्ड और उनके सेना को झारखण्ड की धरती से मार  भगाने का आह्वान किया।  छापामार  युद्ध में काफी निपुण होने के कारण कई दिनों तक अंग्रेज सैनिकों के साथ  लुका-छिपी का युद्ध चलता रहा।  इस विद्रोह को दबाने के लिए एक तरफ ब्रिटिश कम्पनी की सुसज्ज्ति सेना थी, जिसके पास आधुनिक हथियार, रायफल, बन्दुक, गोला बारूद थे, वहीं  जीतराम बेदिया और उनके लड़ाकू साथियों के पास परम्परागत हथियार तीर- धनुष, गुलेल, तलवार, बरछा और गंडासा थे। इसके बावजूद जीतराम बेदिया और उनके लड़ाकू साथी अदम्य साहस, एकजुटता एवं कुशल नेतृत्व के साथ बड़ी मुस्तैदी से लड़ते रहे। अंततः 23  अप्रैल, 1858 को गगरी और खटंगा गॉंव के समीप मेजर मेक्डोनाल्ड के मद्रासी फ़ौज और जीतराम बेदिया के लड़ाकू योद्धाओं के साथ एकाएक मुठभेड़ में दोनों ओर से भयंकर लड़ाई हुई। कई मद्रासी फौजी मारे गए। जीतराम बेदिया को घोडा सहित गोली मारी गयी। गगरी और खटंगा गॉंव के बीचोबीच एक गहरी खाई में उनके शव और मृत घोडे  को गिराकर  मिटटी भर दिया। उस स्थान को घोडा गढ़ा कहा  जाता है।

30.12.1802 -  23.4.1858
शहीद जीतराम बेदिया के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि तब होगी, जब उनके विचारों पर दृढ़ता से अमल किया जायेगा। उनकी संघर्षों की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। जीतराम बेदिया जिस समुदाय से आते है वह समाज आज भी विकास के दौड़ में हाशिये पर है। जो स्थिति आजादी के पूर्व में थी कमोबेश वही स्थिति आज भी है। समाज में आदिवासी समुदाय उपेक्षित है। जल, जंगल, जमीन की अवैध लूट, दहेज प्रथा, आरक्षण में मनमानी नशाखोरी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, बेईमानी, पलायन-विस्थापन ने झारखण्ड को बंधक बना लिया है। प्राकृतिक संसाधनों पर अवैध कब्जा के जरिये प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़कर यहां के लोगों को बेदखल किया जा रहा है  माना  कि आर्थिक विकास करना समय की जरूरत है कुछ हद तक विकास हो भी रहा है। इसमें आदिवासी कहां बाधक है| लेकिन आदिवासियों को उजाड़ कर विकास की बात करना धरती पुत्रों के साथ घोर अन्याय है। चंद लोगों के हितों को ध्यान में रखकर विकास नीति नहीं, बल्कि व्यापक आदिवासियों - मूलवासियों को ध्यान में रखकर विकास को बढ़ावा देने का प्रयास होना चाहिए, जिससे आदिवासियों को अपने ही देश में परायेपन का बोध महसूस न हो और उनका अस्तित्व बचा रहे।
         
         वर्तमान में ओरमांझी प्रखंड को गगरी पहाड़ जीतराम बेदिया के आंदोलन की कहानी बयां  कर रहा है। इस पहाड़ के आसपास कई आदिवासी-मूलवासी गांव-चुटूपालू, तापे, खीराबेड़ा,  बाह्मणकाटापेसराटांड़, सागाटोलाहलबादी, गणेशपुर, तिरलाजावाबेड़ाकरमाजारा,    डुमरडीहापिस्का, उरबा, हरचंडा और गगारी गांव आदि बसे हुए है।उनके वंशजों में धनराज बेदिया, धर्मनाथ बेदिया, मोतीलाल बेदिया, सघन बेदिया, अकलू बेदिया, पारसनाथ बेदिया गगारी गांव में अपने  बाल-बच्चों के साथ रहते है। वे कहते है कि शहीद जीतराम बेदिया को ऐतिहासिक सम्मान तो मिल गया, लेकिन आज वीर सपूत का गांव विकास की बाट जोह रहा है।जीतराम बेदिया से सम्बंधित ऐतिहासिक स्थलों को संरक्षित करने की आवश्यकता है। उनकी जीवनी को स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रमों में शामिल करने हेतु सरकार को ध्यान देना चाहिए, ताकि भावी युवा पीढ़ी जीतराम बेदिया को स्मरण कर प्रेरणा ग्रहण करे। 
   
           यह लेख प्रभात खबर मे 18 अक्टूबर, 2019 को प्रकाशित हो चुका है।                                  




Monday, December 9, 2019

चुनावी दंगल


                          
झारखण्ड की चुनावी दंगल



सुरेन्द्र कुमार बेदिया 

    ख़िरकार झारखंड में चुनाव की डुगडुगी बज गई है। जिसका बेसब्री से इंतजार था। पर, चुनाव आयोग का चरणों में चुनाव कराने का फरमान जारी करना आशंका जाहिर करता है कि कहीं ये सत्ता के दबाव में तो नहीं हैं । ऐसा इसलिए की आजकल स्वायत संवैधानिक निकायों पर प्रश्नचिंह खड़ा हो रहे हैं, क्योंकि महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव एक चरण में संपन्न हो जाती है और वहीं झारखण्ड में पांच चरण में होगी। विपक्ष द्वारा एक चरण की मांग धरी की धरी रह गई। रघुवर सरकार जिस प्रकार सफल मुख्यमंत्री के रूप में झारखंड में दावा करते रही है कि यहां नक्सलवाद की कोई समस्या नहीं रही। कानून व्यवस्था पूरी तरह ठीक-ठाक है। किसी तरह की अनहोनी की संभावना नजर नहीं आती है और इधर चुनाव आयोग का झारखण्ड में लंबी अवधि तक चुनाव कराना कहीं ना कहीं राज्य सरकार के दावे का पोल भी खोल रही है।

झारखण्ड चुनाव- 2019

           इधर नेता नामक प्राणी चुनाव को लेकर अपने-अपने दडबे से बाहर निकल चुके हैं। बरसाती मेंढ़क  की तरह टर - टर्राने लगें हैं । कुछ तो टिकट पाने की जुगाड़ में उछल-कूद कर अपनी पाला बदल रहे हैं। इनके लिए पार्टी का उसूल, सिद्धांत और विचारधारा कोई मायने नहीं रखती है। ऐसे लोग फूली स्वार्थी किस्म के प्राणी में आते हैं। इनके लिए एक स्थानीय  कहावत सटीक बैठता है- '' जिधर भोज उधर सोझ''। 
          लोकतंत्र का चिथड़े उड़ाने वाले इन नेताओं को आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई देने वाली पार्टियां भी लेने से हिचकती नही है । वहीं पार्टी में माथे का बाल पकने तक अपने कंधों में झंडा ढोने वाले निष्ठावान कार्यकर्ता निरीह प्राणी बन कर रह जाते हैं। वहीं दूसरेे घोंसलों  से आये नेता को दूल्हे राजा की तरह मंच में माला पहनाकर स्वागत की जाती है और उन्हें उपहार स्वरूप पार्टी का टिकट दिया जाता है। सुखदेव भगत, मनोज यादव (कांग्रेस,) जयप्रकाश भाई पटेल, कुणाल षांड़गी (झारखंड मुक्ति मोर्चा), गिरिनाथ सिंह (राजद), भानु प्रताप शाही, (नौजवान संघर्ष मोर्चा) बिटटू सिंह पांकी से अब भगवा रंग में रंग चुके  है, वहीं कांग्रेस के पूर्व झारखण्ड प्रदेश अध्यक्ष डॉ० अजय कुमार भी आप पार्टी  का दामन थाम चुके है। वहीं राधाकृष्ण किशोर इस बार केला(आजसू) खाने को बेताब है। यहां गौर करने वाली बात यह है की भानु प्रताप शाही जो  नौजवान संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष है। उसने मधु कोड़ा की सरकार में मंत्री रहते 130 करोड़ का दवा घोटाला किया और आय से अधिक सम्पति रखने का आरोप है। इसमें केन्द्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने आरोपी करार दे रखा है। इनका ट्रायल भी चल रहा है फिर भी बीजेपी ने इसे अपने पार्टी में समाहित कर लिया। कहां गया ''न खाएंगे और न खाने देंगे'' वाली भ्रष्टाचार मुक्त राज्य व भारत का नारा।कायदे से इन नेताओं को चुनाव जीतना ही नहीं चाहिए, लेकिन जनता भी इसे चुन लेती है इसका मायने क्या निकाला जाए ? जिस प्रकार नेता कपड़ों की तरह अपनी पार्टी बदलती है। उसी प्रकार जनता की मानसिकता में भी बदलाव होता है, तभी तो उनके द्वारा दल बदलू नेता को जीत मिल जाती  है। इसका मतलब जनता भी मानने लगी है कि "जब जैसा तब वैसा" वाली मानसिकता अपने जीवन में भी लागू किया जाए। क्योंकि ऊपर से ही इस तरह की प्रदूषित करने वाली स्वार्थी मानसिकता लोगों में भर दी गई है जिससे लोग भी स्वार्थवश अपने विचारों या सिद्धांतों पर अटल नहीं रहते हैं और टॉप टू बॉटम का अनुसरण करते हैं।
         पिछले चुनाव  में बहुतेरे मित्रों का कहना था कि स्थायी सरकार बनेगी तभी झारखण्ड का विकास होगा। यही उम्मीद के साथ बीजेपी को पूर्ण बहुमत 2014 के चुनाव में मिला भी था और रघुवर सरकार पांच साल का कार्यकाल भी पूरी की । लेकिन, क्या सचमुच झारखण्ड विकास के पटरी पर  है ? जवाब मिलेगा नहीं। झारखण्ड के बुनियादी मसले आज भी ज्यों के त्यों मुंह बाये खडी है- झारखण्ड  के बेरोजगारों को अपने राज्य में  रोजगार  उपलब्ध कराना राज्य सरकार का प्राथमिक जिम्मेवारी था,लेकिन झारखंडी नौजवान रोजगार के मामले में छले गये, उन्हें अपने राज्य में ही रोजगार नहीं मिली। राज्य में झारखण्ड लोक सेवा आयोग (जेपीएससी) नामक संस्था जिसका काम रोजगार उपलब्ध कराना है। झारखण्ड बने 19 साल हो गये लेकिन यह संस्था 19 की जगह छठी जेपीएससी की परीक्षा ही ले पायी है। वह भी अधर में लटकी हुई है। झारखण्ड सरकार की उदासीनता और जेपीएससी में घोर अनियमितता और आरक्षण के नियमों का पालन नहीं करने के कारण 6ठी जेपीएससी की मुख्य परीक्षा में छात्रों को सड़कों में उतरने को बाध्य कर दिया।
  
                                                  6ठी जेपीएससी में अनियमितता के विरूद्ध प्रदर्शन

छात्र जेपीएससी कार्यालय के बाहर हफ्ता भर से रातजगा कर परीक्षा के विरोध में महात्मा गाँधी के तसवीर रखकर विरोध प्रदर्शन करते रहे। लेकिन सरकार  के एक भी नुमाइंदे प्रदर्शनकारी छात्रों से मिलने की जरूरत नहीं समझी। छात्रों के प्रति इतनी संवेदनहीनता रघुवर की सरकार में देखने को मिली और मुख्य परीक्षा संगीनों के साये में ले लिया गया। झारखण्ड चुनाव- 2019 तक़रीबन 23 -24 हजार छात्र इसमें शामिल हुए। झारखण्ड की मिडिया में इसे काफी उछाला गया लेकिन सरकार गूंगी -बहरी बनी रही।19 साल से झारखंडी छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ होता रहा। आज राज्य के लाखों छात्र बेरोजगारी का दंश झेलने को मजबूर है, आखिर झारखण्ड किसके लिए अलग हुआ  है ? किसका विकास हो रहा है ? फिर आज चुनाव की घड़ी आयी है तो छात्रों को वो काली रातें याद करना होगा जिसमे उनकी आवाज को हुक्मरानों ने अनसुनी कर दिया था। आज छात्रों को अपना तेवर दृढ़ता के साथ दिखाने का अवसर आ गया है।
          राज्य में पारा टीचरों की संख्या लगभग 74 हजार है। सरकारी टीचरों की बहाली न कर सरकार इनसे काम ले रही है। ये अपने सेवा के स्थायीकरण को लेकर धरना प्रदर्शन कर रहे थे।जिसमे कई  की जाने चली गयी लेकिन सरकार की ओर से सुध तक नहीं ली गयी न उनसे संवाद स्थापित किया गया।  पारा टीचर क्या गलत कर रहे थे ? जबकि इनलोगों से विभिन्न प्रकार के काम करवाये जाते हैं। आंदोलन में पारा टीचरों को प्राण गंवाने पड़ गए। पारा टीचरों ने संघर्ष में प्राण गंवाने वाले साथियों की सौगंध ली है कि एक भी पारा टीचर सत्ता के नशे में चूर रघुवर सरकार को आने वाले चुनाव में वोट नहीं करेंगे और विरोध में प्रचार करेंगे । अगर पारा टीचर इस बार झांसे में नहीं आये तो सरकार के लिए बहुत बड़ी परेशानी खड़ी करने की कुब्बत रखते है। क्योंकि इनकी पकड़ जमीनी स्तर तक होती है। उसी प्रकार आंगनबाड़ी में काम करने वाली महिलाओं की दुर्दशा भी देखने को मिली ये महिलाएं राज्य सरकार के प्रमुख योजनाओ को जनता तक पहुंचाती है। अपने मानदेय बढ़ाने के लिए प्रदर्शन कर रही महिलाओं पर सरकार ने बर्बर तरीके से लाठी चार्ज कर महिलाओं को दौड़ा-दौडा कर पीटा ।

                                                 आंगनबाड़ी  महिलाओं को लाठी  चार्ज  करते  पुलिस 

वह भी पुरुष पुलिस के द्वारा क्या राज्य में महिला पुलिसकर्मी नदारद थे । ये महिलाएं सहायिका और सेविका के लिए 18 हजार और 9  हजार की मांग कर रही थी। विधायक (MLA) की बारी आएगी तो वेतन बढ़ोतरी में देर नहीं लगती लेकिन निरंकुश सरकार ने महिलाओं को लाठी के रूप में सौगात दिया। जबकि सरकार महिला सशक्तिकरण का खूब स्वांग रचती है। पूरे राज्य में लगभग 67 हजार की संख्या में आंगनबाडी महिलाएं हैं। इस बार महिलाओं ने ठानी है की रघुवर सरकार की निरंकुशता का जवाब वोट से देंगे।
        इतना ही नहीं, सरकार के द्वारा यहां के भाषा संस्कृति को बचाने का कोई प्रयास नहीं हुआ। साहित्य संस्कृति कला का संवर्धन कहीं भी नहीं दिखा और न जनजातीय भाषाओं  की पढ़ाई और टीचर की बहाली पर सरकार संजीदा दिखी,जबकि जनजातीय भाषाओं  की पढ़ाई प्राथमिक स्तर से ऊंच शिक्षा तक स्कूलों और कॉलेजों में होनी  है, लेकिन राज्य सरकार उदासीन बनी रही इतना ही नही यहां के लोक कलाकारों को भी उचित सम्मान तक नहीं दिया गया। इन्हे सिर्फ मनोरंजन का साधन समझा जाता रहा है । 
     गौरवतलब है कि जल,जंगल,जमीन,खनिज सम्पदा और पर्यावरण आदिवासियों के प्राण रहे हैं। झारखण्डवासी और उनकी सभ्यता-संस्कृति जमीनों, पहाड़ों और नदियों से जुड़ा हुआ है। लेकिन सरकार झारखण्ड के नदी- नालों, गढ़ा-ढोढ़ा, पोखर- डाडी, तालाब, जंगल- झाड़ और  गैर मजरुआ  जमींनों  को ''भूमि बैंक'' बनाकर उसमें डाल दिया है। ऐसा सरकार निवेश करने वाले आकाओं को जमीन देकर खुश करने, झारखण्ड के हरियाली और खुशहाली को तहस- नहस करने  के लिए तकरीबन 21 लाख एकड़ जमीन लैंड बैंक में जमा कर लिया  है।
         आपको यह भी  मालूम है कि भिन्न भिन्न प्रकार के कौशल विकास केंद्र (Skill Development Center)  सरकार खोल रखी है । यह एक तरह का युवाओं के लिए लॉलीपॉप है। जिसमे दूर -दराज के आदिवासी-मूलवासी युवक -युवतियों को हुनर सिखाने के नाम पर लाया जाता है और उसे प्रशिक्षण देकर अपने राज्य से बाहर दूसरे राज्यों में प्राइवेट जॉब करने के लिए भेज दिया जाता है, जिसमे  मात्र 60007000  रुपया मिलता है। आपको याद होगा राज्य में मोमेंटम झारखण्ड ग्लोबल इन्वेस्टर सम्मिट -2017  का आयोजन  किया गया था। इसमें जनता के गाढ़ी कमाई के 40 करोड़ रूपये देशी विदेशी पूंजी निवेशकों के नाम पर आयोजन में फूँक दिए गये थे। झारखंड में हाथी तक को उड़ाया गया था । कई  कंपनियों के साथ मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग (MOU) हुई थी। इसी कार्यक्रम में रघुवर सरकार एक लाख युवाओं को जॉब ऑफर का लेटर थमाकर रोजगार देने का ढिंढोरा पीटा था। यह मात्र  छः -सात हजार की प्राइवेट नौकरी थी । वह भी अपने राज्य में नहीं, वैसी जगह पर जहां जाने से किराया भी चुकता नही हो पायेगा। सरकार अपने राज्य से आदिवासियों और मूूूूलवासियों को विस्थापन व पलायन करने का अच्छा रास्ता अख्तियार कर लिया है । इस तरह अपने जड़ों से ही आदिवासियों- मूूूूलवासियों को काटने का दुस्साहस करते रही। क्या इनके लिए झारखण्ड में काम ही नहीं है ? क्या सरकार इन बच्चों को अपने ही राज्य में सात -आठ हजार की नौकरी नहीं दिला सकती हैै ? अन्य राज्यों में  मिलने वाली राशि से ये खाएंगे, रहेंगे या फिर अपने  बूढ़े माता -पिता के लिए घर भेजेंगे ? यह भोले- भाले आदिवासी युवकों के साथ क्रुर मजाक है और उनके भावनाओं के साथ खिलवाड़ है। सरकार इसी को कह रही  है कि हमने लाखों बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध कराया है। यही है '' न्यू इंडिया, न्यू झारखण्ड''। यह वाकिया किसी भी सभ्य समाज  के लिए बेहद शर्मनाक है।
         इनके कार्यकाल में आपने देखा होगा की राज्य  में भूख से 22-23  लोगों की मौत हो जाती है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे -4 की रिपोर्ट कहती है कि झारखण्ड मे सबसे अधिक 48 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। और चार लाख बच्चों की जान को खतरा है। कुपोषण और चिकित्सीय सेवा के अभाव  से रिम्स में 103 और जमशेदपुर में 64 बच्चों की मौत भी हो चुकी है। कई जिलों से भूख से मरने वालों की खबरे भी आती है। यहां तक कि स्वयंसेवी संगठनों  के द्वारा भी पुष्टि की जाती है, लेकिन सरकार भूख से मरने की बात को एक सिरे से नकार देती है। इनके मंत्री सरयू राय इन्हे अफवाह करार देते है, जबकि सिमडेगा की गरीब  मासूम बच्ची 11 वर्षीय संतोषी कुमारी  को राज्य की जनता भूल नहीं सकती है। यह मामला काफी तूल पकड़ा था सरकार की किरकिरी हो गई थी।  जिसको राशन कार्ड रहने के बावजूद उन्हें 35 किलो चावल यह कहकर नहीं दिया गया की राशन कार्ड आधार से लिंक नहीं है और वह भूख से तड़पकर मर गई। गरीबों के जान से ज्यादा कीमत आधार कार्ड का हो गया है। सवाल है क्या लिंक करवाने का काम सरकार का नहीं था ? डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, स्मार्ट  सिटी सरीखेे भारी भरकम शब्द गरीबों को लादने से सुदूरवर्ती इलाकों में विकास क्या हो जायेगा ? सवाल यह भी  है क्या भारत यूरोप, आस्ट्रेलिया, जापान और  अमेरिका हो गया है ? उसी प्रकार रामगढ जिला में चिंतामण मल्हार की मौत राशन नहीं मिलने से हो जाता  है और सरकारी महकमा भुख से मौत को ढकने- तोपने पर उतारू हो जाती है। गिरिडीह में आर्थिक तंगी से जूझ रही एक वृद्ध आदिवासी  महिला सावित्री देवी  की भूख से मौत हो गई। इस प्रकार  फेहरिस्त लंबी है। जबकि भूख से मौत समाज के लिए एक कलंक है । सरकार  के लिए तो बेहद शर्मनाक है। भोजन का अधिकार और खाद्य सुरक्षा कानून राज्य में लागू रहने के बावजूद गरीबों की मौत होते रही और सरकार गरीबों के साथ होने की ढोंग कर कान में तेल डाल कर सोते रही है।
      इस बार युवाओं को भली-भांति समझना है कि चुनाव लोकतंत्र का एक मजबूत स्तंभ है। अतः हम चुनावी लोकतंत्र में वोट अवश्य करें पर बेरोजगारों की फ़ौज खड़ी करने वालों को चोट भी करें। सोंच समझ कर वैसा सरकार व प्रतिनिधि का चुनाव करें जो ईमानदारी पूर्वक बेरोजगारों को स्थायी रोजगार अपने राज्य में देने के लिए कटिबद्ध हो। क्यूंकि हजारों रिक्तियां राज्य में खाली पड़ी है। लोगों की समस्याओं के प्रति उनकी गंभीरता, शैक्षणिक योग्यता, कर्मठता को देखकर ही उनका चयन किया जाय, जो हमारी शिक्षा, स्वास्थ, सिंचाई, पानी, बिजली, रोजगार जैसी मूलभूत समस्याओं को प्राथमिकता देकर समाधान करने की दिशा में हमेशा तत्पर हो। अक्सर युवाओं को चुनाव के समय बहलाया जाता है उसे तरह-तरह के प्रलोभनों  के जरिए जाल में फंसाया जाता है। युवा लालच में पड़ भी जाते हैं जिसका खामियाजा लम्बे समय तक भुगतना पड़ता है।आप इससे सतर्क  रहें और झारखण्ड गढ़ें।  अगर नेता ऐसे हथकंडे अपनाकर चुनाव में जीत दर्ज करते हैं तो यकिन मानिए ये नेता आपके सवालों को लेकर कभी भी मुखर नहीं हो सकते हैं । इसलिए अगर हम नहीं चेतेंगे तो पिछली बार की तरह इस बार भी हमलोग धोखा खाने के लिए अभिशप्त होंगे।